दिन…..
एक
पूरे दिन की धूप को
फटकना शुरू किया सूप से
चालना शुरू किया
चलनी से …..
मथना शुरू किया
मथनी से
वो भी शाम को
तो
थोथा थोथा उड़ गया
जो सार सार बचा
वो थी ढिबरी
चूल्हे की आग
कुछ बूंद पसीने की
कुछ तारे
एक चांद
इक्का दुक्का जुगनू
और
तुम्हारी दो आंखें …..
दो ….
चार किताबे
और अनगिनत दीमक
किताबे देखने में साबुत
पर
हाथ लगाते ही
भरभराकर गिरे
पन्ने, शब्द, जिल्द, शीर्षक, नाम
नाम से जुड़ी कहानियां
बिल्कुल वैसे ही
जैसे तुम्हारे लौटने का दिन
गिरा, ढुलक कर
आंख से
हथेली पर
हथेली से
धरती की अनंत गहराई में
उस दिन
पता चला कि
दिन भी
दफ्न होते है…...
तीन……
कोई कोई दिन होते हैं
जो घूमते है सारे दिनों
चाहे साल बीते
चाहे सदियां
चाहे झील मरे
चाहे नदियां ……
जैसे
पहला ख़त लिखने का
पहली चिड़िया देखने का
पहले स्पर्श का
पहले बिछोह का
पहली लिखावट का
पहली आग का
पहले पहिए का
पहले सिक्के का
पहली बारिश का
पहली भूख
और पहली रोटी का
पहली ज़ुबान का
पहली इच्छा
और
उसके दमन का
पहले विरोध का …..
दिन
ये घूमते रहते हैं
इतने सारे दिनों में
और
पहली हत्या का दिन …..
चार……
दिन जैसे कोई पासे की तरह फेकता है
हमारी आंख के सामने ……
और हम पासे अंक में उलझ जाते हैं
हम जो मनुष्य होते है ….
उस अंक में उलझते ही
होने लगते है
मनुष्य से कुछ कमतर मनुष्य
या
थोड़े बिखरे मनुष्य
थोड़ा दफ्तर में
थोड़े फैक्ट्री में
थोड़े खेत में
थोड़ा मेट्रो में
थोड़े ही सही
सड़क पर
थोड़े थोड़े
नून, तेल, नमक, आटा चावल दाल में
घर बदरंग पर्दे में
मां की फटी हुई शॉल में
भाई के रोजगार में
बहन पर लगी पाबन्दियों …..
इन तमाम
रोज़मर्रा की चिंदियों में …..
पत्नी की मांगी बिंदियों में …..
हम पूरे दिन में थोड़े थोड़े ही होते हैं
पूरे होते हैं किसी की जेब में …..
जो हमको फेरता है अपनी जेब में
सिक्कों की तरह …..
और हमें लगता है
हम ढाले जा रहे है
सिक्कों की तरह …….
जबकि
ढल रहा होता है दिन पेड़ से
पासा खिसक रहा होता है
उसकी जेब में …..
मनुष्य लौटता है
खुद के बिखरेपन को समेटते हुए
दिन लौट जाता है पूरा का पूरा ….
मुझे इन्तजार है
दिन के मनुष्य का !!
(भारतेंदु कश्यप)