Tuesday 2 May 2023

दिन ( A Day)

दिन….. 

एक 


पूरे दिन की धूप को

फटकना शुरू किया सूप से 


चालना शुरू किया 

चलनी से ….. 


मथना शुरू किया 

मथनी से 


वो भी शाम को 

तो 

थोथा थोथा उड़ गया 

जो सार सार बचा 

वो थी ढिबरी 

चूल्हे की आग 

कुछ बूंद पसीने की 

कुछ तारे 

एक चांद 

इक्का दुक्का जुगनू 


और 

तुम्हारी दो आंखें ….. 



दो …. 


चार किताबे 

और अनगिनत दीमक 

किताबे देखने में साबुत 

पर 

हाथ लगाते ही 

भरभराकर गिरे 

पन्ने, शब्द, जिल्द, शीर्षक, नाम 

नाम से जुड़ी कहानियां 


बिल्कुल वैसे ही 

जैसे तुम्हारे लौटने का दिन 

गिरा, ढुलक कर 

आंख से 

हथेली पर 

हथेली से 

धरती की अनंत गहराई में 


उस दिन 

पता चला कि 

दिन भी 

दफ्न होते है…... 


तीन…… 


कोई कोई दिन होते हैं 

जो घूमते है सारे दिनों 

चाहे साल बीते 

चाहे सदियां 

चाहे झील मरे 

चाहे नदियां …… 


जैसे 

पहला ख़त लिखने का 

पहली चिड़िया देखने का 

पहले स्पर्श का 

पहले बिछोह का 

पहली लिखावट का 

पहली आग का 

पहले पहिए का 

पहले सिक्के का 

पहली बारिश का 

पहली भूख 

और पहली रोटी का 

पहली ज़ुबान का 

पहली इच्छा 

और 

उसके दमन का

पहले विरोध का ….. 

दिन 

ये घूमते रहते हैं 

इतने सारे दिनों में 


और 

पहली हत्या का दिन ….. 


चार…… 


दिन जैसे कोई पासे की तरह फेकता है 

हमारी आंख के सामने …… 

और हम पासे अंक में उलझ जाते हैं 

हम जो मनुष्य होते है …. 

उस अंक में उलझते ही 

होने लगते है 

मनुष्य से कुछ  कमतर  मनुष्य 

या 

थोड़े बिखरे मनुष्य 

थोड़ा दफ्तर में 

थोड़े फैक्ट्री में 

थोड़े खेत में 

थोड़ा मेट्रो में 

थोड़े ही सही 

सड़क पर 

थोड़े थोड़े 

नून, तेल, नमक, आटा चावल दाल में 

घर बदरंग पर्दे में 

मां की फटी हुई शॉल में 

भाई के रोजगार में 

बहन पर लगी पाबन्दियों ….. 

इन तमाम 

रोज़मर्रा की चिंदियों में ….. 

पत्नी की मांगी बिंदियों में ….. 


हम पूरे दिन में थोड़े थोड़े ही होते हैं 

पूरे होते हैं किसी की जेब में ….. 

जो हमको फेरता है अपनी जेब में

सिक्कों की तरह ….. 


और हमें लगता है 

हम ढाले जा रहे है 

सिक्कों की तरह ……. 


जबकि 

ढल रहा होता है दिन पेड़ से 

पासा खिसक रहा होता है 

उसकी जेब में ….. 


मनुष्य लौटता है 

खुद के बिखरेपन को समेटते हुए 

दिन लौट जाता है पूरा का पूरा …. 


मुझे इन्तजार है 

दिन के मनुष्य का !! 


(भारतेंदु कश्यप) 

 




Saturday 28 July 2012


लखनऊ को याद करते हुए ( बहाना कोई और है )


चुप चाप दसतक़ दे रही है
एक कहानी
एक नज़्म
एक गीत
और कई नाटक 
जो कभी तेरे मेरे साथ लिखे थे ....
हज़रत गंज से मुंशी पुलिया तक
और वापस
मुंशी पुलिया से हज़रत गंज तक ....
जिसमे सिमटी हुई है
अमीनाबाद की शाम ...
सिमटे हुए हैं
चीनी मिट्टी के बर्तन 
कांच की प्यालियां
और चिकनकारी के लिबास
जिनको खरीदने के ख़्वाब बुने थे ...
आज फिर से
वही ख्वाब दस्तक दे रहे हैं
आधी रात को
मेरे ज़ेहन के दरवाज़े पे ...
कच्चे रसीले स्वाद के साथ
भीनी भीनी महक लिये
लब-ए-माशूक़ की तरह ...
मुम्बई से चलती हैं कई रेलगाड़ियां
लेकिन जो केवल लखनऊ जंक्शन तक छोड़ देती हैं मुझे ....
वहाँ की गलियों का रास्ता बताने के लिये
आ जा ...
आ जा मेरे दोस्त ....
लखनऊ की सर्दीली शाम आज भी मेरे मन मे ताज़ा है ...
हज़रत गंज के चाय की गर्मी लिये ...
                                                    
( दोस्तों .... याद आ रही है तुम्हारी .. ) 
                                                                       भारतेंदु कश्यप
                                                                        

Wednesday 8 February 2012

साझा - संगीत


सांझ होते ही
कुछ सुलगने लगता है
और चुल्हा जलते ही
बुझ भी जाता है
इन सब के दर्मियान
तुम्हारी चुड़ियों से
उठती खन खन खनक
रचती है
"राग ललित"
जो मेरे होठों तक आते आते
"भैरवी" हो जाती है .....
                                   ( भारतेंदु कश्यप )

Saturday 4 February 2012

गुज़रा है बसंत....


हमने सुना है
इस गली से गुज़रा है बसंत
गाँव के नुक्कड़ से ही मुड़ गया
मुँह चिढ़ाता हुआ
अंगूठा दिखाता हुआ
पीली सरसों को
झुकी हुई अमराइयों को
महुआ से टपकते रसों को
तीसी के बैगनी फूलों को


वह बढ़ गया
नियॉन बल्बों की रोशनी में
क्लबों मे जा बैठा है ...
इस शहर की  
तमाम सपाट
      बेजान सड़कों से
हो के गुज़रा है ....
चढ़ा है किसी उंची अट्टालिका पे
देखने को
कि
इस साल
दलहन
तिलहन
आम
आदि आदि की
कहाँ –कहाँ
अच्छी पैदावार होने वाली है ....


हमने सुना है
इधर से गुज़रा है बसंत
हमारे खेत खलिहान
     बाग – बगीचे
     ताल – तलैया
पार करता हुआ
ठेंगा दिखाता हुआ
इस गली से गुज़रा है बसंत ......
                                ( भारतेंदु कश्यप  )

Friday 23 December 2011

बाल मन....


एक छोटी सी कविता
और
पूरा आसमान तान लिया है
एक काग़ज़ की तरह ....
सातो समंदर मे घोल दी है
स्याही ....
छोटे से बच्चे की तरह
पालथी मार कर बैठ गया हूँ
काग़ज़ पर ...
लपक के डूबाता हूँ
कलम समंदर मे ....
शुरु करता हूँ
लिखना
छोटी सी कविता ....
पहले ही
अक्षर से
सिकुड़ने लगता है आसमान
सूखने लगते हैं समंदर ....
पूरी होने लगती है कविता
आकार लेने लगता है मेरा
बाल-मन ................


Monday 5 December 2011

चिट्ठियाँ ....एक अवशेष


चिट्ठियाँ
1
चिट्ठी
जब आती थी
तो अपने  साथ
केवल संदेश नहीँ
और भी बहुत कुछ ले आती थी
ले आती थी
रिश्ते
लिखने वाले के हाथोँ की गर्मी
उसका खूलूस
उसकी हँसी
उसकी रुलाई
काले काले अक्षरोँ के बीच
इन सबके साथ
बसी रहती थी सुबुक सी हवा
बसती थी उसमे गंध
माटी की ...
अभी भी है
मेरी आलमारी मे वो गंध
               वो हवा
क्योँकि कुछ चिट्ठियाँ हैं वहाँ
और ये सब बचे रहेंगे  
तब तक
जब तक
ये  कुछ चिट्ठियाँ बची  हैँ ...


2 .
“ अत्र कुशलँ तत्रास्तु ”
“ सर्व श्री उपमयोग ” 
“ ख़ैरियत के बाद दीगर अहवाल ”
ये सम्बोधन सारे
कहाँ चले गये ?
जो किसी भी आगत विगत
को इस तरह बयाँ करते थे
कि
एक ताक़त मिल जाती थी
उनका सामना करने की
अब तो जो भी है
वो बोल के आता है
हमे बिना कोई मौका दिये ...
झनझनाते हुए तारोँ पर सवार हो कर ....

3
युनिवर्सिटी का आख़िरी दिन
फेअर-वेल पार्टी के बाद
ग्रुप फोटोग्राफ
सब एक दूसरे के पते
अपनी डायरियोँ पे लिख रहे थे ...
कहते जा रहे थे डबड्बायी आँखो से
“ चिट्ठियाँ लिखना दोस्त ”
                                   भारतेंदु कश्यप.....




Tuesday 29 November 2011

सांझ -दिन


सांझ सिंदूरी हो गयी
तो लगा
तुमने अपनी मांग भरी हो ...
अक्सर ये सांझ
तुम जैसी लगती है
और चढ़ता हुआ दिन
मुझ जैसा आवारा ....
जो भटक – भुटुक कर लौटेगा
तुम्हारी सिंदूरी ड्योढ़ी पर
और तुम
चुनरी धीरे धीरे खींच कर
एक गहरी छाया कर दोगी ...
                                                   ( भारतेंदु कश्यप )